शरीफ़ आदमी

शरीफ़ आदमी है,
मुझे जानता है...
दोस्त ना सही,
दुश्मन तो मानता है...

वार नहीं करता,
भूले से भी,
मेरे पलटवार की नियत भी,
पहचानता है । 


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पिछले चार महीने में जब,
पहला खाली इतवार मिला,
घर की साफ सफाई में ,
एक रद्दी अखबार मिला ।

पढ़ कर एक ख़बर भर ही,
माथा घंटो फिरा रहा,
कैसे काले अक्षर में,
इतना सारा लहू भरा?

एक अजन्मे शावक को,
सजा मौत की मिलनी थी,
होनी थी एक अग्नि परीक्षा,
लड़की होना गलती थी।

फिर सोचा एक कविता लिख कर,
सबसे एक फरियाद करू,
खून सने इस कागज़ में,
थोड़ी स्याही बर्बाद करूं

लिंग परीक्षण किए बिना,
गर पैदा होकर जिंदा है,
उसी वंश के पूज्य व्यक्ति को,
आदम कहलाने का हक बनता है।
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ऐ मेरी सुबह-ऐ-हसीं..

ऐ मेरी सुबह-ऐ-हसीं,
होती हो जब तुम पास में,
सोचना पड़ता है मुझको,
हूँ होश में , या ख़्वाब में..
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गम समेटे बैठे हैं

हैं दुनियाँ में खुशियाँ नहीं,
जितने ग़म समेटे बैठे हैं...
टूटे है ख़ुद भी पर,
उनको हम समेटे बैठे हैं...
जो आया नही ख़ातिर उसकी,
अपनी पलके
नम समेटे बैठे हैं...

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मानता हूँ,
मतरुख़ हूँ,
पर रखने को महफूज़ गुलाब,
ज़रूरी काँटों का भी साथ होता है...

जब तुम रूठ जाती हो,
तो एहसास होता है,
कि वो लम्हा कितना ख़ास होता है,
जब तू मेरे पास होता है...
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एक पल भी तेरे बगैर गुज़रा क्यों है...

दिल न जाने आशिकी से सहमा क्यों है,
एक पल भी तेरे बगैर गुज़रा क्यों है...
यू तो तू दिल है मेरा, दिल्लगी भी है,
पर मेरा दिल मुझसे ही, दूर रहता क्यों है...
तकलीफ़ होगी तुझे न पाकर पास,
करीब आने की ज़िद फिर करता क्यों है...
कोशिशें तमाम, नाकाम होती है पास आने की,
ना जाने मुकाम के पहले कुछ कहता क्यों है...
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इश्क़ वाले भी कमाल करते हैं...

गौर करो तो बताऊँ,
इश्क़ वाले भी कमाल करते हैं...
चांद को ग़ज़लों में ही नहीं,
इरादों में भी इस्तेमाल करते हैं...
क्यों शिकायत करती हो,
दूरियों की रोज़ तुम,
हम दोनों,
चाँद, सितारे,
और ख़्वाब सारे,
एक ही तो इस्तेमाल करते हैं...

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वो अश्क़ है मेरे

जो चमकते हैं ना आसमां में रात को,
वो अश्क़ है मेरे, कोई सितारे नही हैं...

क्यूँ मुस्कुरा रहे हो लतीफ़ों पर मेरे,
वो ज़ख्म है मेरे, ख़्वाब तुम्हारे नहीं हैं...
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दिखाऊंगा अमावस का चाँद लेकिन,
उसकी खातिर तुम्हे भी रात बनना होगा...
ऐ महबूब समझने को नियत मेरी,
आशिक नहीं, शरीक़-ए-हयात बनना होगा...
समझ सकती हो तुम भी ,
मेरी नादानियों का सबब...
पर उसकी ख़ातिर ,
तुम्हे मेरा जुनूँ नहीं, ज़ज़्बात बनना होगा...
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तभी तो पहली ग़ज़ल लिखी थी..

आई मुहल्ले में ज़ब वो हसीना,
मेरी कलम तब नई नई थी...

मेरे चंद लफ़्ज़ों पे जब वो हँसी,
तभी ये आदत बुरी लगी थी...

वो जब गयी थी दामन छुड़ा के,
तभी शायरी की फसल लगी थी...

सुना था उनको शौक है साहिब,
तभी तो पहली ग़ज़ल लिखी थी...
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इस बात पर गौर कर..

जानता हूँ शिकायत है तुम्हें,
दूरियों से मगर,
दिल की ही सही,
करीबियों पर गौर कर...

रोती हो तुम बहुत,
मेरे अलफ़ाज़ पर मगर,
एक बार ही सही,
ज़ज्बात पर गौर कर...

जानता हूँ,
चमकते हो तुम,
चाँद बन आसमां पर,
पर वो आसमां किसका है,
इस बात पर गौर कर..
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उन्हें याद रही वो दो बातें,
जो की उनके मतलब की थी,
पर भूल गयी सारे वादे,
जो बाते अपने दिल की थी..
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